दर-ए-गुल पे सूरज की दस्तक से पहले सजा लूँगा अपनी जबीं पर गई रात की ख़ुनकियाँ साअ'तों की मुक़द्दर में है तिश्नगी कैसे इनआ'म शबनम की जुरअत करूँ शर्मसारी से लौटूँ ये मुमकिन नहीं हो सके तो अभी शब-ए-रफ़्ता की सौगंद को भूल कर तितलियों के सभी ज़ंग छूने चलूँ यूँ नए दिन के हमराह जीने चलूँ