हवा लाल ईंटों की गलियों से गुज़रती सीलन-ज़दा कोठरियों में बच्चे जन्ती है घुटी घुटी साँसें लेती हुई जब बाहर निकलती है तो ठण्ड से कुबड़ी हो चुकी होती है सीधा चलने की ख़्वाहिश में ऊँचे नीचे रस्तों पर घोड़ों के सुमों तले कीचड़ में लत-पत सर पटख़ती उठने की कोशिश करती है और रेंगते रेंगते किसी हवेली में जा घुसती है जहाँ रात का सन्नाटा बैन कर रहा होता है क़दमों की मानूस सी चापों से हवेली के सन्नाटों में गूँज की दराड़ें पड़ने लगती हैं हवा किसे ढूँढती है वो जानती है कि पसारों में अज्दाद के फ़न का लोहा संदूक़ों में भरा पड़ा है पुरखों के अफ़्कार शेल्फ़ों पर क़रीने से सजे हैं एक बड़े कमरे में गोल मेज़ पर क्रोशिए से काढ़े हुए रूमाल में उस ने अपनी आँखें भी काढ़ दी हैं वो रोती हुई रूमाल में काढ़ी हुई आँखों को चूमती है और हवेली के दर-ओ-दीवार से लिपटी हुई आख़िरी निशानी तलाश कर रही होती है कि सन्नाटा चीख़ उठता है