आख़िर कब तक तुम सपनों के शीश-महल में रंग बिरंगी क़ौस-ए-क़ुज़ह सी यादों की एक चादर ताने सोए रहोगे खोए रहोगे एक ज़रा ये भी तो सोचो कल कोई शरीर सा बच्चा सपनों के उस शीश-महल पर खेल ही खेल में बस इक पत्थर दे मारे तो फिर क्या होगा आँखें खोलो सपने तो आख़िर सपने हैं उन का क्या है माज़ी के बीते लम्हों को मुट्ठी में किस ने पकड़ा है