एक आलिम-ए-दीं ने किसी शाइ'र से कहा ये अंदाज़-ए-तकल्लुम से अयाँ है तिरे सरक़ा अशआ'र में औरों के तू करता है तसर्रुफ़ ये तेरा तख़य्युल है कि 'ग़ालिब' का है चर्बा ये शोख़ी-ओ-जिद्दत तिरी क़ुदरत से है बाहर ये शय तो हक़ीक़त में बुज़ुर्गों का है विर्सा शाइ'र ने अदब से ये कहा आलिम-ए-दीं से तक़लीद तो है फ़ितरत-ए-इंसाँ का तक़ाज़ा तक़लीद से आज़ाद नहीं आप का भी ज़ेहन इस पर भी 'हनीफ़ा'-ओ-'ग़ज़ाली' का है ग़लबा तक़रीर-ओ-मज़ामीं पे अकाबिर उलमा के हज़रत को भी क्या ख़ूब तसर्रुफ़ का है मलका आप और शरीअ'त के ये पुर-पेच मसाइल क्या 'रूमी'-ओ-'राज़ी' का नहीं ये भी अतिय्या क़ुदरत हो तसर्रुफ़ पे तो जाएज़ है तसर्रुफ़ नायाब है अक़वाल-ए-सलफ़ का ये ख़ज़ीना इंसान के आ'माल तो निय्यत पे हैं मौक़ूफ़ निय्यत हो अगर साफ़ तो शर का नहीं शुबहा आगाह नहीं आप तवारुद के अमल से अफ़्सोस है कहते हैं तवारुद को भी सरक़ा जाएज़ इसे रक्खा है हर इक अहल-ए-नज़र ने ढल जाए नए जाम में गर बादा-ए-कोहना तन्क़ीद करें आप ज़रा सोच समझ कर उल्टा न पड़े आप की गर्दन पे ये हर्बा तन्क़ीद का फ़न इस क़दर आसान नहीं है शोहरत का इसे आप बनाएँ न ज़रीया