उस की पलकों पे घटा बन के जो छाया सावन फिर तो मैं हँस पड़ा कुछ इस तरह बरसा सावन चढ़ते सूरज के शुआ'ओं से जो बरसा सावन मैं ने देखा न सुना था कभी ऐसा सावन सारी जाँ खिंच के चली आई मिरी आँखों में फूल की तरह खिले ज़ख़्म जो आया सावन ख़िरमन-ए-सब्र को बिजली ने जलाया गिर कर जब कभी दिल की तमन्नाओं से उलझा सावन बर्क़-ओ-बाराँ तो है तस्वीर-ए-हयात-ए-इंसाँ हँस के रोने का दिखाता है तमाशा सावन यूँ तो पहले ही समेटे था हज़ारों जल्वे हुस्न के अक्स से कुछ और भी निखरा सावन हर तरफ़ फूल खिले रंग के बादल बरसे ऐ 'सुहैल' उस की निगाहों ने सजाया सावन