इक संग तराश जिस ने बरसों हीरों की तरह सनम तराशे आज अपने सनम-कदे में तन्हा मजबूर निढाल ज़ख़्म-ख़ुर्दा दिन रात पड़ा कराहता है चेहरे पे उजाड़ ज़िंदगी के लम्हात की अन-गिनत ख़राशें आँखों के शिकस्ता मरक़दों में रूठी हुई हसरतों की लाशें साँसों की थकन बदन की ठंडक एहसास से कब तलक लहू ले हाथों में कहाँ सकत कि बढ़ कर ख़ुद-साख़्ता पैकराँ को छू ले ये ज़ख़्म-ए-तलब ये ना-मुरादी हर बुत के लबों पे है तबस्सुम ऐ तेशा-ब-दस्त देवताओ! तख़्लीक़ अज़ीम है कि ख़ालिक़ इंसान जवाब चाहता है