कैसा सुनसान है दश्त-ए-आवारगी हर तरफ़ धूप है हर तरफ़ तिश्नगी कैसी बे-जान है मय-कदे की फ़ज़ा जिस्म की सनसनी रूह की ख़स्तगी इस दो-राहे पे खोए गए हौसले इस अंधेरे में गुम हो गई ज़िंदगी ऐ ग़म-ए-आरज़ू मैं बहुत थक गया मुझ को दे दे वही मेरी अपनी गली छोटा-मोटा मगर ख़ूब-सूरत सा घर घर के आँगन में ख़ुश्बू सी फैली हुई मुँह धुलाती सवेरे की पहली किरन साएबाँ पर अमर-बेल महकी हुई खिड़कियों पर हवाओं की अटखेलियाँ रौज़न-ए-दर से छनती हुई रौशनी शाम को हल्का हल्का उठता धुआँ पास चूल्हे के बैठी हुई लक्छमी इक अँगीठी में कोयले दहकते हुए बर्तनों की सुहानी मधुर रागनी रस-भरे गीत मासूम से क़हक़हे रात को छत पे छिटकी हुई चाँदनी सुब्ह को अपने स्कूल जाते हुए मेरे नन्हे के चेहरे पे इक ताज़गी रिश्ते-नाते मुलाक़ातें मेहमानियाँ दावतें जश्न त्यौहार शादी ग़मी जी में है अपनी आज़ादियाँ बेच कर आज ले लूँ ये पाबंदियों की ख़ुशी