सोज़िश-ए-ग़म का बयाँ लब पे न लाऊँ क्यूँकर दर्द है हद से सिवा दिल में छुपाऊँ क्यूँकर तू यहीं दोस्त मिरे ग़म का मुदावा कर दे चोट जो दिल पे लगी है वो दिखाऊँ क्यूँकर कैसे दोहराऊँ ग़म-ए-ज़ीस्त के अफ़्साने को सुनने वाला न कोई हो तो सुनाऊँ क्यूँकर रौशनी होती नहीं मेरे सियह-ख़ाने में शम-ए-दिल अब शब-ए-हिज्राँ में जलाऊँ क्यूँकर सिल्क-ए-अंजुम हैं तिरी याद में आँसू अब तक तेरे दामन को सितारों से सजाऊँ क्यूँकर जब के तिनके का सहारा भी नहीं है 'नाशाद' अपनी कश्ती को तलातुम से बचाऊँ क्यूँकर