इस दौर के हैं क़िस्सा-गो हम शहर-ज़ादों की सुनो ये दास्तान-ए-ज़ीस्त है कुछ ख़्वाब की ता'बीर है कुछ दर्द की तमसील है आइंदगाँ का शहर या है रफ़्तगाँ की आरज़ू इक गहमा-गहमी कू-ब-कू फैली हुई है चार-सू ईजाद-दर-ईजाद होती ख़्वाहिशें और जुस्तुजू हर सम्त में बढ़ता हुआ ये कार-ज़ार-ए-रंग-ओ-बू आसाइशों के इस घने जंगल में तन्हा मैं कि तू हम मशअ'ल-ए-आशुफ़्ता लौ हम शहर-ज़ादों की सुनो और आसमाँ से बातें करतीं उन फ़सीलों का ये जाल इस जाल में महबूस होती रोज़-ओ-शब ये ज़िंदगी इस ज़िंदगी से मुंक़लिब होती हुई वारफ़्तगी हर आन है कोई ख़लिश हर पल कि जैसे तिश्नगी हर हाल में फिर भी मुक़द्दम काविश-ए-आसूदगी हम आसमाँ के राह-रौ हम शहर-ज़ादों की सुनो इस कूचा-ओ-बाज़ार में अजनास के अम्बार हैं फ़ितरत से कोसों दूर हैं ये जो भी कारोबार हैं इस दौड़ में सब लोग ही पैहम सुबुक-रफ़्तार हैं अपनी मशीनी ज़िंदगी हम आदमी बेज़ार हैं लेकिन हमारे हौसले इस दौर के मे'मार हैं हम से मिली तारों को ज़ौ हम शहर-ज़ादों की सुनो है ख़ुद-फ़रामोशी पे ग़ालिब ख़ुद-फ़रेबी की चुभन तकरार से ता'बीर हैं ये ज़िंदगी के माह-ओ-सन यकसानियत के दश्त में खुलता है नुदरत का चमन मायूस जज़्बों से इधर कुछ कर दिखाने की लगन बीम-ओ-रजा के दरमियाँ हम शहर-ज़ादे हैं मगन हम शहर-ज़ादों की सुनो हम राक़िम-ए-तारीख़-ए-नौ