कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यूँ है वो जो अपना था वही और किसी का क्यूँ है यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यूँ है यही होता है तो आख़िर यही होता क्यूँ है इक ज़रा हाथ बढ़ा दें तो पकड़ लें दामन उन के सीने में समा जाए हमारी धड़कन इतनी क़ुर्बत है तो फिर फ़ासला इतना क्यूँ है दिल-ए-बर्बाद से निकला नहीं अब तक कोई इस लुटे घर पे दिया करता है दस्तक कोई आस जो टूट गई फिर से बंधाता क्यूँ है तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता कहते हैं प्यार का रिश्ता है जनम का रिश्ता है जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यूँ है