नहीं ये ढेर मिट्टी के सबक़-आमोज़-ए-इबरत हैं करूँ ऐ हम-नशीं क्यूँकर न इन से इस्तिफ़ादा मैं निशान-ए-रफ़्तगाँ मैं ने हर इक मंज़िल में पाया है इसी इबरत-कदे ने क्या ख़याल उन का जमाया है क़यास अपना किया उन पर जो मैं ने ऐ शरीफ़ इंसाँ नज़र आया मुझे उन में कोई ख़ंदाँ कोई गिर्यां यहाँ मज़लूम ही रहते नहीं हैं बल्कि ज़ालिम भी नज़र पहलू-ब-पहलू आते हैं महकूम-ओ-हाकिम भी न देखा तुम ने शायद उन को अब तक चश्म-ए-इबरत से ख़ुदा-रा लो सबक़ कुछ भी तो इन अलवाह-ए-तुर्बत से हुमायूँ है यहाँ आसूदा वो क़ब्र-ए-हलाकू है सुना है ये कोई मुर्शिद है और वो एक डाकू है वो शह-ज़ोर आज बेकस हैं जो कमज़ोरों से लड़ते थे ख़ुदा जाने कि अहल-ए-हिल्म से क्यूँकर बिगड़ते थे करो याद उन बुज़ुर्गों को शराफ़त जिन पे है नाज़ाँ न भूलो उन को भी जो थे सिपह-सालार-ए-शरबाज़ाँ निगाहों में उन्हें रक्खो उभरना है अगर तुम को ख़यालों में उन्हें परखो सँवरना है अगर तुम को