सुने अज्दाद से क़िस्से तिरे महबूब बंदों के कई मज्ज़ूब बंदों के फ़ना के जाम लेते थे वफ़ा से काम लेते थे बक़ा को थाम लेते थे कभी सूली पे आते थे कभी सहरा को जाते थे कभी रक़्स-ए-नदामत था यूँही मुर्शिद मनाते थे अनल-हक़ की सदाएँ थीं विसाल-ए-यार पाते थे मोहब्बत ही मोहब्बत थी न ग़म था पेट भरने का न शिकवा रोज़ मरने का जहाँ ने रंग-ओ-ढंग बदले मनाज़िर दम-ब-दम बदले क़दम बहके क़दम बदले इधर अहल-ए-जहाँ बदले ख़ुदा बदला सनम बदले मोहब्बत की बजाए माल-ओ-ज़र पे जान देते हैं हमारे अह्द के उश्शाक़ अब रुस्वा नहीं होते कभी तन्हा नहीं होते हक़ीक़त मान लेते हैं कभी दुनिया से लड़ते थे मगर अब मस्लहत से काम लेते हैं