क्या सोचती हो दीवार-ए-फ़रामोशी से उधर क्या देखती हो आईना-ए-ख़्वाब में आने वाले लम्हों के मंज़र देखो आँगन में पुराने नीम के पेड़ के साए में भय्यू के जहाज़ में बैठी हुई नन्ही चिड़िया क्यूँ उड़ती नहीं जंगल की तरफ़ जाने वाली वो एक अकेली पगडंडी क्यूँ मुड़ती नहीं टूटी ज़ंजीर सदाओं की क्यूँ जुड़ती नहीं इक सुर्ख़ गुलाब लगा लो अपने जूड़े में और फिर सोचो