ख़ाक के ज़र्रों को तनवीर-ए-नज़र देता है वो फूल की पत्ती को लोहे का जिगर देता है वो जब उसे महमेज़ करती है तख़य्युल की अदा ज़ुल्मत-ए-शब को तजल्ली-ए-सहर देता है वो साज़िश-ए-बर्बादी-ए-आलम जहाँ जब भी हुई सारी दुनिया जाग जाती है ख़बर देता है वो जब रग-ए-जम्हूरियत को काटने बढ़ता है ज़ुल्म बे-गुनाही सब्र करती है असर देता है वो इस क़दर फ़ितरत के हुस्न-ए-दिलरुबा पर है फ़िदा तालिब-ए-सर हो अगर फ़ितरत तो सर देता है वो ख़ुद तही-दामन सही लेकिन ज़र-ए-इख़्लास से दामन-ए-तहज़ीब-ए-इंसानी को भर देता है वो अज़्मत-ए-आदम से कर के मुंज़बित अपना सुख़न ग़म-ज़दों को जुरअत-ए-ज़ौक़-ए-सफ़र देता है वो मौत को तस्ख़ीर कर के क़ुव्वत-ए-इदराक से मुर्दनी चेहरों को जीने का हुनर देता है वो क़ल्ब-ए-शाइर को मिली हैं इश्क़ की सब बरकतें इश्क़ ही से क़ल्ब-ए-आहन मोम कर देता है वो