शरारत की पुतली थी बाजी की मुन्नी वो इतनी सी फ़ित्नी थी बाजी की मुन्नी इधर और उधर थी वो बस आती जाती यूँ ही फिरती रहती वो डंडे बजाती कभी बे-कहे चीज़ उस की उठा ली न पूछा-गछा मुँह में रख झट से खा ली कभी मुँह बनाया कभी मुँह चिढ़ाया कभी पास बैठे हुए को हटाया कभी बाल नोचे कभी चुटकियाँ लीं कभी पिन चुभो दी कभी घुड़कियाँ दीं कभी इस सहेली का जूता छुपाया कभी उस सहेली का हलवा उड़ाया किताब उस की फाड़ी दवात उस की तोड़ी ग़रज़ कोई बाक़ी शरारत न छोड़ी शरारत से बस बूटी बूटी भरी थी वो मुन्नी शरारत की इक फुलझड़ी थी कढ़ाई बनाई न खाना पकाना न सीना पिरोना न पढ़ना पढ़ाना वो घर का कोई काम-धंदा न करती यूँ ही सारे दिन घर में बे-कार फिरती कहानी ये मुन्नी की है ख़ूब 'नय्यर' पढ़ी जाएगी शौक़ से ख़ूब घर घर