सुनो कल तुम्हें हम ने मद्रास कैफ़े में औबाश लोगों के हमराह देखा वो सब लड़कियाँ बद-चलन थीं जिन्हें तुम सलीक़े से काफ़ी के कप दे रहे थे बहुत फ़ुहश और मुब्तज़िल नाच था वो कि जिस के रेकॉर्डों की घटिया धुनों पर थिरकती मचलती हुई लड़कियों ने तुम्हें अपनी बाहोँ की जन्नत में रक्खा बहुत दुख हुआ तुम ने होटल में कमरा किराए पे ले कर उन औबाश लोगों और उन लड़कियों के हुजूम-ए-तरब में गई रुत तक जश्न-ए-सहबा मनाया बहुत दुख हुआ ख़ानदानी शराफ़त बुज़ुर्गों की बाँकी सजीली वजाहत को तुम ने सर-ए-आम यूँ रौंद डाला सलीक़ा जो होता तुम्हें लग़्ज़िशों का तो अपने बुज़ुर्गों की मानिंद तुम भी घरों में कनीज़ों से पहलू सजाते पए इशरत-ए-दिल हवेली में हर शब कभी रक़्स होता कभी जाम चलते किसी माह-रुख़ पर दिल-ओ-जाँ लुटाते सलीक़ा जो होता तुम्हें लग़्ज़िशों का तो यूँ ख़ानदानी शराफ़त वजाहत न मिट्टी में मिलती न बदनाम होती