पा-ब-गुल रात ढलेगी न सहर आएगी कोई सूरज किसी मशरिक़ से न निकलेगा कभी रेज़ा रेज़ा हुए महताब ज़माने गुज़रे बुझ गए वादा-ए-मौहूम के सारे जुगनू अब कोई बर्क़ ही चमकेगी न अब्र आएगा चार-सू घोर अँधेरा है घना जंगल है तू कहाँ जाएगी फुंकारते सन्नाटे में सरहद-ए-याद-ए-गुज़िश्ता से परे कुछ भी नहीं देख इसरार न कर मान भी ले लौट भी जा मैं तिरी राह का पत्थर सही ये बात तो सुन आगे खाई है अगर राह का पत्थर हट जाए