( भोपाल के गैस हादसे से मुतअस्सिर हो कर ) नई जिहतों की शाख़ों पर शगूफ़े फ़सीलों पर जबीं रख दी सबा ने शिकस्ता दर पे दस्तक दी सबा ने सबा जो रक़्स के मंज़र दिखाए सबा जो गीत गा गा कर सुनाए सबा के इज्ज़ को जाना है किस ने सबा की बर्छियाँ खाई हैं किस ने मगर तू दस्त-ए-इम्काँ से परे थी तिरा दस्त-ए-हसीं था दस्त-ए-क़ातिल न शब-ख़ूँ से मफ़र हम को न तुम को रम-ए-चारा-गराँ का ज़िक्र कैसा मरे लेकिन न रुत आई कफ़न की ज़माना है ज़माना चल रहा है