दिल में कम-ज़र्फ़ के उठती हैं हसद की लपटें आतिश-ए-इश्क़ से आशिक़ का जिगर जलता है क़ल्ब-ए-मासूम में हर आबिद-ए-पाकीज़ा के शो'ला-ए-ख़्वाहिश-ए-इरफ़ान-ए-ख़ुदा पलता है मैं न हासिद हूँ न आशिक़ हूँ न आबिद ऐ दोस्त फिर भी अंगारों पे हर-वक़्त रहा करता हूँ मेरी क़िस्मत में है एहसास-ए-ख़ुदी की हिद्दत अपनी ही आग में दिन-रात जला करता हूँ