ज़र्द तारों से निकल कर रौशनी भी ढूँढती है राह शायद सो बिखर जाती है हर इक सम्त गोया ढूँड लेगी वो हर इक मंज़िल हर इक रस्ते पे चल के काश मैं भी देख पाता सारी राहों पे सफ़र कर जान पाता छोड़ आया हूँ मैं क्या क्या और क्या क्या तक रहा हो मेरी राहें रोज़-ए-महशर तक ख़ुदाया कौन लेकिन चल सका है कौन चल सकता है हर राह ख़ैर शायद मैं नहीं रख पाया वा'दा और कहती है सबा फिर छोड़ दो अब उठ चलो अब ये तसव्वुर बे-मआ'नी ये तकफ़्फ़ुर राएगाँ है