कब से इस आतिश-ए-नफ़स का ये दबिस्तान-ए-क़दीम चल रहा था ना-गहाँ निकला नतीजा इम्तिहान इल्म-ए-अस्मा का तभी से रह गई हो कर मुक़फ़्फ़ल ये इमारत और छुट्टी पर मोअल्लिम अपने हुजरे में मुक़ीम आदम-ए-ख़ाकी की पैदाइश से पहले जिन का कहना था ज़मीं पर ख़ून बहाएगा ये नाहक़ और मचाएगा फ़साद अब वही पेशेनगो उमीद-वार इस के गुन गाते हुए थकते नहीं इम्तिहान-गाह-ए-मुक़द्दर हो तो ऐसी जिस में पुर-ताब-ओ-तवाँ हम कार-परदाज़ान-ए-फ़ितरत ला-जवाब और आदम उस की तीनत में तो गोया हल-शुदा पहले से थे सारे सवाल जिन मज़ाहिर की तरफ़ देखा नज़र भर कर मआ'नी के दमक अठे उन्हीं में मुज़्मिरात हिकमत-ए-अश्या के साँचे में ढली बे-साख़्ता इस्म-आफ़रीनी मर्हबा ख़ाक-ए-बे-मिक़दार के ज़र्रात में जौहर-ए-नुत्क़-ओ-बयाँ ऐसा भी मख़्फ़ी है किसे मा'लूम था इम्तिहाँ ख़त्म और मस्जूद-ए-मलाइक बन गई इंसाँ की ज़ात मैं ने लेकिन शेवा-ए-इंकार अपनाया कि मैं आतिश-ए-निहाद मर्तबे में ख़ाक-ए-उफ़्तादा से बरतर अस्ल में वाला गुहर चाहे अफ़्लाक-ओ-ज़मीन पर फैल कर छा जाए ये मुश्त-ए-ग़ुबार हर्बा तस्ख़ीर लेकिन कारगर मुझ पर भी हो इस का यही इक मरहला है मा'रके का इम्तिहाँ ये सख़्त-तर है कामयाबी इस में भी पाए यही उमीद-वार ख़ुश-गुमाँ आसाँ नहीं मेरी अपनी इक लुग़त है जिस में अस्मा के मआ'नी बार-बार इक नई ता'बीर के आईना-दार मंसब-ए-आज़ादगी आदम का इक परवाना-ए-ग़ारत-गरी इस में लिखा है और आगाही तबाही के वसाएल तक रसाई का जवाज़ इस में छपा है अल-ग़रज़ इस खेल का मोहरा वही इल्म-ए-अस्मा है मगर इक पुर-फ़ुसूँ तक़लीब-कारी का शिकार इक पुर-फ़ुसूँ तक़लीब-कारी का शिकार