सीता

तिरा नाम ले कर सहर जागती है
तिरे गीत गाती है तारों की महफ़िल

तिरी ख़ाक-ए-पा हिन्द का राज़-ए-अज़्मत
तिरी ज़िंदगी मेरे ख़्वाबों की मंज़िल

कहानी तिरी सुन के थर्रा उठी मैं
धड़कने लगा धीरे धीरे मिरा दिल

छुपाए हैं सीने में कुछ राज़ अपने
दकन के कुहिस्ताँ की तपती चटानें

मुसाफ़िर कुछ आए थे इन जंगलों में
फ़ज़ा में हैं बिखरी हुई दास्तानें

वो हमदर्द आँखें वो बातों में जादू
वो मज़बूत बाज़ू वो भारी कमानें

वो इक ख़ुद-फ़रामोश पी की पुजारन
कटी पत्तियों की नदी का किनारा

निगाहों से छनता हुआ नूर-ए-उल्फ़त
जबीं पर फ़रोज़ाँ वफ़ा का सितारा

बरसते हुए फूल ख़ुशियों के हर सू
ज़माना भी था रुक के महव-ए-नज़ारा

वो पैहम सफ़र वो हवादिस के तूफ़ाँ
वो पैरों में छाले वो हँसती निगाहें

कभी दिल को ग़ुर्बत में बहलाए रखना
कभी देस की याद में सर्द आहें

रही सालहा साल तू जादा-पैमा
ये धुन थी कि तय हों रियाज़त की राहें

मगर आज़माइश थी कुछ और बाक़ी
अभी सामने और भी इम्तिहाँ थे

असीरी फिर इक राक्षस की असीरी
बहुत दूर तुझ से तिरे पासबाँ थे

तिरी पाक फ़ितरत मगर इक सिपर थी
तिरे सामने राक्षस ना-तवाँ थे

उठे फिर तिरा नाम ले कर जवाँ कुछ
जरी हौसला-मंद सच्चे जियाले

हिला डाले ऐवान इक सल्तनत के
तिरे पासबाँ थे बड़े आन वाले

तिरी वापसी कर रही थी ये ऐलाँ
कि मिटते नहीं ज़ुल्मतों से उजाले

सहे जो सितम बन गए सब फ़साना
तलाफ़ी का अब आ रहा था ज़माना

हुई आह लेकिन ये कैसी तलाफ़ी
दोबारा मिला जंगलों में ठिकाना

सलीब एक बाक़ी थी जो मामता की
उसे भी तो लाज़िम था तन्हा उठाना

अजब हैं ये असरार-ए-वस्ल-ओ-जुदाई
कि मंज़िल को पा कर भी मंज़िल न पाई

ये कैसा सितम था कि इफ़्फ़त की देवी
सुबूत अपनी इफ़्फ़त का देने को आए

वो शो'ले की मानिंद शो'लों से गुज़री
वो बिजली सी बन कर ज़मीं में समाई


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