गूँगी होती हुई ख़ामोशी सन्नाटे की दहलीज़ पकड़ कर जाने कब तक जमी रहेगी मैं वो लफ़्ज़ ही भूल आई हूँ रस्ते में ही गिरा आई हूँ जो तुम से मिलने आए थे जानते हो तुम लफ़्ज़ मिरी धड़कन थे उस पल सीने में इक हश्र बपा था सुर्ख़ी का पैराहन ओढ़े मेरे सजीले लफ़्ज़ वो सारे सपनों के रंगीन महल में रहने को बे-ताब बहुत थे तुम शायद कुछ कह दो उन से इक मासूम सी ख़्वाहिश ले कर पास तुम्हारे आ बैठे थे लेकिन तुम ने जान ही ले ली उन की जीते-जागते लफ़्ज़ वो सारे ज़र्द पड़े बस तकते रह गए और फिर इस पर सर्द बर्फ़ सा लहजा तुम्हारा लफ़्ज़ तो जैसे मरने लगे थे दिल की धड़कन रुक सी गई थी सर्द पड़ती वो लाशें उन की जिस पल मैं ने समेटी थीं वीराँ होते सीने में उन की क़ब्रें खोदी थीं और उन्हें दफ़नाया था जिस सीने में हश्र बपा था अब सन्नाटे गूँजते हैं मैं चुप ले कर आई हूँ रोज़ लरज़ते हाथों से अश्कों में इक भीगी हुई चादर उन पे चढ़ाती हूँ सोच रही हूँ गूँगी होती हुई ख़ामोशी सन्नाटे की दहलीज़ पकड़ कर जाने कब तक जमी रहेगी