रात गुज़री तो नई सुब्ह नुमूदार हुई और इन बंद दरीचों से मिरे कमरे में एक नौ-ख़ेज़ किरन सुब्ह का पैग़ाम लिए जाने किस सम्त से आहिस्ता-ख़िराम आई है ज़िंदगी रक़्स में है फूल खिले जाते हैं आबशारों से उबलते हुए नग़्मात-ए-हसीं मेरा सरमाया-ए-एहसास-ओ-यक़ीं आज हर सम्त नया रंग नया हुस्न नज़र आता है