क़रीब-ए-सुब्ह सदा-ए-शिकस्त-ए-जाँ उभरी लबों का ज़हर अचानक पिघल गया आख़िर सुकूत-ए-जिस्म लहू पीते पीते चौंक उठा ये कौन शब की तमाज़त से जल गया आख़िर कराहता सा उठा कोई टूटता पैकर सियाहियों में सुलगता हुआ धुआँ जैसे झटक के दौर हुई बिस्तरों से उकताहट लिपट गया हो कोई साँप ना-गहाँ जैसे अज़ाब-ए-रूह मकानों का दर्द चाटेगा बढ़ेंगे शहर-ए-तमन्ना की सम्त सब साए कशा-कशों के समुंदर में डुबकियाँ लेते हर एक ज़ात की मौजूदीयत से उकताए घरों में क़ैद दर-ओ-बाम की हर इक उलझन गली गली के लबों से लिपट रही होगी तबीअतों को सँभाले हुए धुएँ की लकीर वरक़ किताब-ए-नफ़स के उलट रही होगी रहेगा यूँ ही सरों पर इ'ताब का सूरज इसी तरह से बसर होते जाएँगे दिन-रात कलेजा मुँह में रखे और सीने पर पत्थर गुज़ार देंगे गुज़रते हुए सभी सदमात