एक शोख़ी-भरी दोशीज़ा-ए-बिल्लोर-जमाल जिस के होंटों पे है कलियों के तबस्सुम का निखार सीमगूं रुख़ से उठाए हुए शब-रंग नक़ाब तेज़ रफ़्तार उड़ाती हुई कोहरे का ग़ुबार उफ़ुक़-ए-शर्क़ से इठलाती हुई आती है मस्त आँखों से बरसता है सुबूही का ख़ुमार फूल से जिस्म पे है शबनमी ज़रतार लिबास करवटें लेता है दिल में उसे छूने का ख़याल आँखें मलते हुए जाग उठते हैं लाखों एहसास ये हसीना मुझे उकसाती हुई आती है नग़्मे गूँज उट्ठे हैं पाज़ेब की झंकार के साथ नुक़रई उँगलियाँ आफ़ाक़ पे लहराती हैं जिस्म के लोच में सीमाब की मौजें हैं रवाँ लहरें बाहोँ की थिरकती हुई बल खाती हैं नाचते नाचते बढ़ती है मगर रुकती हुई दिल को बर्माता है उस शोख़ का भरपूर शबाब उस की गर्मी मिरी साँसों से कोई दूर नहीं फ़र्श-ए-मख़मल पे बिछी जाती हैं उस की नज़रें नीले आँचल में दमकती हुई शफ़्फ़ाफ़ जबीं उट्ठी मशरिक़ से तो मग़रिब की तरफ़ झुकती हुई मुज़्महिल चेहरे की ज़र्दी में है रुख़्सत का पयाम सुर्मगीं आँखों पे झुकने को हैं लम्बी पलकें क़ुर्मुज़ी धारियाँ छन छन के सियह ज़ुल्फ़ों से जज़्ब हो जाती हैं दहके हुए रुख़्सारों में ज़ुल्फ़ें बिखरी हुई शानों से ढलक आई हैं सर झुकाए हुए मुँह फेर के ख़ामोशी से दूर मग़रिब के धुँदलकों में चली जाती है मेरे दिल में हैं सुलगती हुई यादें उस की उन्ही यादों से मिरी रूह जली जाती है कितनी तारीकियाँ चुप चाप सरक आई हैं