फूट पड़ीं मशरिक़ से किरनें हाल बना माज़ी का फ़साना गूँजा मुस्तक़बिल का तराना भेजे हैं अहबाब ने तोहफ़े अटे पड़े हैं मेज़ के कोने दुल्हन बनी हुई हैं राहें जश्न मनाओ साल-ए-नौ के निकली है बंगले के दर से इक मुफ़लिस दहक़ान की बेटी अफ़्सुर्दा मुरझाई हुई सी जिस्म के दुखते जोड़ दबाती आँचल से सीने को छुपाती मुट्ठी में इक नोट दबाए जश्न मनाओ साल-ए-नौ के भूके ज़र्द गदागर बच्चे कार के पीछे भाग रहे हैं वक़्त से पहले जाग उठे हैं पीप भरी आँखें सहलाते सर के फोड़ों को खुजलाते वो देखो कुछ और भी निकले जश्न मनाओ साल-ए-नौ के