वो कि जिस के दम से हर एक ज़र्रे के रग-ए-जाँ में हरारत भरा लहू रवाँ था वो जो ता-दम-ए-हयात सरसर को सबा कहने से गुरेज़ाँ था जिस के पुर-सोज़ तरन्नुम से हसीन वादियों में लफ़्ज़ों की ख़ुश्बू बिखर रही थी वो कि जिस के लफ़्ज़ों की हरारत से ज़िंदाँ की सलाख़ें पिघल रही थीं शफ़क़ की रंगत बदल रही थी वो इक जियाला मुजाहिद-ए-हक़ ये सोच हम को दे गया है तमाम महलों की रौनक़ों से झोंपड़ी की सियाह रातें हज़ार गुना सुकून तर हैं हज़ार गुना सुकून तर हैं