फ़ज़ा-ए-ज़ीस्त पे छाई है कैसी ख़ामोशी न कोई शोर न शेवन न गिर्या-ओ-ज़ारी न कोई शिकवा-ब-लब है न कोई फ़रियादी न कोई दर्द का क़िस्सा न कोई ज़िक्र-ए-अलम न सिसकियों का कोई इर्तिआ'श ज़ोलीदा न दूद-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ की कोई गिराँबारी न कोई हर्फ़-ए-अलम है न इस्तिआ'रा-ए-ग़म न कोई क़तरा-ए-ख़ूँ है सियाही-ए-क़िरतास सितम-कशों पे है तारी अजीब आलम-ए-यास नहीं हैं ऐश के नग़्मे तो ग़म के गीत सही किसी के हल्क़ा-ए-ज़ंजीर ही के साज़ बजें किसी का ज़ख़्म-ए-जिगर ही चटक के दे आवाज़ कहीं से दिल के धड़कने ही की सदा आए रफ़ीक़ो कुछ तो करो अर्ज़-ए-हाल का सामाँ किसी तरह तो कोई दिल-फ़िगार ले फूटे किसी तरह तो फुसून-ए-सुकूत-ए-शब टूटे