सूरज के जलते विहार में बस गई बसंती रंग भरी बदरी कि बदरी बरस गई इक रुत की जलती बहार में काया की सरसों झुलस गई और झूम झूम के नाच रही धरती कि बदरी बरस गई यही नाच अमर यही खेल अमर क्या गए दिनों का पछतावा क्या नई रुतों का बहलावा नैनों की जोत जगाए रखो किस रोज़ बहार बसंत नहीं इस पागल रुत का अंत नहीं कोई अंत नहीं