गवाही दे रहा हूँ, अब से कुछ पहले जुनूबी शहर के उस पार मैं देखा गया था अब जहाँ पर ख़ुश्क पेड़ों के घने जंगल हैं, सूने तंग रस्ते झाड़ियाँ हैं और लम्बे ज़र्द, जाली-दार पत्तों में हवाएँ सरसराती हैं गवाही दे रहा हूँ, अब से कुछ पहले, जो अपने ही लहू में डूबता देखा गया था, वो कोई मफ़रूर क़ैदी था जिसे मैं जानता हूँ, अब से कुछ पहले, जो मेरे ज़ेहन के तपते हुए सहरा में भागा फिर रहा था जिस की ख़्वाहिश थी: कहीं ठंडी घनेरी घास पर, अपना लिबास-ए-ख़ाक-ओ-ख़ूँ रख कर गुल-ए-मंज़र में खो जाए गवाही दे रहा हूँ: अब से कुछ पहले, वो नन्ही, शोख़ लड़की थी गिलहरी सी फुदकती फिर रही थी आम के सरसब्ज़ सायों में उसे मालूम था शायद कि उस की छातियों में मैं धड़कता हूँ मैं धड़कन बन गया था उस के सीने में मचलता था वो मेरा जिस्म थी शायद उसे मालूम था: मैं हर गुल-ए-मंज़र में हूँ और रात दिन उस का तआक़ुब कर रहा हूँ अब से कुछ पहले जुनूबी शहर के उस पार जो देखा गया था मैं नहीं था खोज में मेरी वो नन्ही शोख़ लड़की थी गवाही दे रहा हूँ अब से कुछ पहले