दूर से भागते और बढ़ते चले आते हैं जज़्बा-ए-शौक़ में डूबे हुए सरसब्ज़ दरख़्त राहत-ए-रूह का सामान लिए नग़मा-ए-साज़ नज़र बिखराते मेरी मुश्ताक़ निगाहों से मिलाते हुए नज़रें अपनी मुझ से मिल मिल के बिछड़ जाते हैं और फिर दूर बहुत दूर पहुँच कर ऐसे देखते जाते हैं मुड़ मुड़ के मुझे जैसे इक तिश्नगी महसूस किए जाते हैं रेल इस कैफ़-ओ-नज़र से आरी अपनी मंज़िल को उड़ी जाती है और सरसब्ज़ दरख़्त धुँदले सायों में बदलते हुए मादूम हुए जाते हैं जैसे मैं ने उन्हें देखा ही न हो यूँही सायों में झलकते हुए महबूब जमाल सफ़हा-ए-दहर के ताबिंदा नुक़ूश चंद यादों में ढले जाते हैं ये ज़माने का चलन और सफ़र मेरे अहबाब मुझे देख रहे हैं गोया मैं बना जाता हूँ तफ़सीर-ए-हयात