हो तो सकता है किसी देव के जैसे मैं भी ले उड़ूँ तुझ को कहीं दूर की दुनियाओं में दिल की दीवारों में लौ तेरी मुक़य्यद कर के तिश्ना आशाओं के क़िले को मुनव्वर कर लूँ ख़्वाब-ए-देरीना की ता'बीर बना कर तुझ को अपनी आँखों के किवाड़ों में मुक़फ़्फ़ल कर लूँ सारी दुनिया की निगाहों से छुपा कर तुझ को ले उड़ूँ रेंगते बल खाते हुए रस्तों पर जो पहाड़ों के बदन काट के ऊपर की तरफ़ सब्ज़ काई से अटे महलों पे जा रुकते हैं ख़ुद-ग़रज़ हो के तुझे क़ैद में रक्खूँ ऐसे ज़ी-नफ़स कोई न हो चार-चफ़ेरे तेरे अपनी तन्हाई की वहशत को मिटाने के लिए ढूँड पाए न किसी को तू सिवाए मेरे सिर्फ़ इक मैं हूँ और इक तू हो रिफ़ाक़त के लिए मा-सिवा मेरे न हो कोई मोहब्बत के लिए लेकिन ऐ फूल-सिफ़त देख के सूरत तेरी सोचता हूँ कि अगर बाग़-ए-जहाँ से तुझ को तोड़ भी लूँगा तो तू कैसे जिएगी आख़िर रंग-हा-रंग महकते हुए फूलों से परे दूर उफ़्तादा पुर-असरार ख़राबे में क़याम दर्द के फैलते साए में कहाँ मुमकिन है तुझ तर-ओ-ताज़ा का ख़ुश रहना चटकना खिलना मेरी वीरान-सराए में कहाँ मुमकिन है