मैं सोचता हूँ मैं एक इंसान हूँ एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ मैं अभी मैं ये सोच ही रहा था कि एक आवाज़ सरसराई फ़ज़ा की ख़ामोश वुसअतों में पलट के देखा कोई हवाई जहाज़ परवाज़ कर रहा था जो लम्हा लम्हा बुलंदियों की तरफ़ रवाँ था मैं उस को तकता रहा मुसलसल न जाने कब तक न जाने इस लम्हा-ए-गुरेज़ाँ के तंग दामन में कितनी सदियाँ सिमट गई थीं न जाने मेरी नज़र में कितने नए उफ़ुक़ जगमगाए कितने ही चाँद सूरज उभर के डूबे न जाने वो कौन सा जहाँ था ज़मीं कि पाँव तले कोई फ़र्श-ए-ज़र हो जैसे फ़लक कि सर पर रिदा-ए-आब-ए-गुहर हो जैसे फ़ज़ा मुनव्वर हवा मोअत्तर नफ़स नफ़स में बसी हुई निकहत-ए-गुल-ए-तर ख़लाओं में मुश्तरी ओ ज़ोहरा का रक़्स जारी तमाम आलम पे हल्का हल्का सुरूर तारी न जाने मैं किस ख़याल में गुम किस अब्र-पारे पे उड़ रहा था ग़ुरूर से सर बुलंद कर के हर इक सितारे को देखता था कि एक दिल-दोज़ चीख़ गूँजी फ़ज़ा की ख़ामोश वुसअतों में मैं चौंक उट्ठा पलट के देखा गली से इक हड्डियों का ढाँचा गुज़र रहा था जो चीख़ कर एक इक से कहता था ''एक रोटी ख़ुदा तुम्हारा भला करेगा''