जब एक सूरज ग़ुरूब होता है कम-नज़र लोग ये समझते हैं अब अँधेरा ज़मीं की तक़दीर हो गया है ज़माना ज़ंजीर हो गया है उन्हें ख़बर क्या कि मेहर-ओ-माह-ओ-नुजूम सारे तो रौशनी के हैं इस्तिआ'रे तुलूअ' का दिल-फ़रोज़ मंज़र ग़ुरूब का दिल-शिकन नज़ारा अज़ल से उस रौशनी का परतव है जो मुसलसल सफ़र के आलम में हर मकाँ ला-मकाँ को अपने जिलौ में ले कर रवाँ-दवाँ है ये रात और दिन हर एक ज़ाहिर हर एक बातिन हर एक मुमकिन उसी तसलसुल का ज़ेर-ओ-बम है निगार-ए-फ़ितरत का हुस्न-ए-रम है उफ़ुक़ उफ़ुक़ पर यही रक़म है कि जो अदम है वो ज़िंदगी का नया जनम है