मैं कितनी देर से आँखें बंद किए बैठी हूँ जैसे साँस लेने को और ज़िंदगी करने को कोई बहाना न मिल रहा हो जैसे आँसू और दर्द बे-मा'नी हों जैसे अपना वजूद दूसरों की ज़रूरियात का एक ज़रीया हो जैसे हँसी और ख़ुशी और रंग-बिरंगी दुनिया किसी ख़्वाब का हिस्सा हों मैं कब से आँखें बंद किए बैठी हूँ और यके-बा'द-दीगरे कई धमाकों से कितनी दुनियाएँ तख़्लीक़ हो कर उजड़ चुकी हैं