मैं अपनी रूह-ए-अज़ाब-गर से ये कह रहा था कि रूह की प्यास और बदन की तलब में एक रब्त-ए-बाहमी है न रूह सरशार है न ताबिंदगी-ए-तन है ये रेज़ा रेज़ा जो रिज़्क़ पहुँचा है तार-ओ-पू का सरिश्ता-ए-ना-तवाँ है अर्ज़-ए-हुनर के दामान-ए-बे-रफू का ये लुक़मा-ए-ख़ुश्क-ओ-हल्क़-फ़र्सा कभी तो लज़्ज़त-ए-शिआ'र-ए-काम-ओ-दहन भी होता फ़सील-ए-तन मावरा-ए-पस-ख़ुर्दगी भी होती मैं दस्त-ए-कोताह-गीर दौलत से पूछता हूँ कि उम्र भर तू ने काग़ज़ी पैरहन सिए क्यूँ ज़बान-ए-आलूदा-कार को सी के बैठ जाता तू सख़्त-कोश अज़ाब-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ न सहती ये लम्हे आसार-ए-बाक़िया हैं कि जिन में साँसें भी घट रही हैं तलब है दरयूज़ा-गर कि उस ने शिकस्त दिल की पनाह ढूँडी क़लम चला है तो रौशनाई के अश्क टपका न लौह-ए-दिल पर हरीफ़ को अपने साथ मक़्तल की धूप में ला सवाद-ए-महरुमी-ए-बशर तो नहीं गुज़र-गाह-ए-ना-मुरादी पहाड़ काटे हैं जुरअतों ने ख़राबा-ए-ज़हन पर तमाज़त ग़ुरूर की है समन-बरी साया-गुस्तरी है उसी को ज़हराब-ए-आगही दे उसी से ता'मीर आशियाँ कर