चंद खोए हुए लम्हात को करता हूँ तलाश और वो मिलते नहीं आलम-ए-बेदारी में आलम-ए-ख़्वाब को कहते हैं हक़ीक़त के ख़िलाफ़ कश्मकश सी है बपा ग़फ़लत ओ हुश्यारी में चंद खोए हुए लम्हात को करता हूँ तलाश कभी शहरों कभी क़रयों कभी वीराने में थक के बैठा हूँ तो देता हूँ तसल्ली दिल को होंगे महफ़ूज़ किसी दिल के सियह-ख़ाने में चंद खोए हुए अफ़्कार को करता हूँ तलाश जाने महफ़ूज़ हैं वो ज़ेहन के किस कोने में मेरे अफ़्कार तो हैं जुज़्व मिरी हस्ती के ख़ुद भी मैं खो सा गया 'अम्न' उन्हें खोने में चंद खोए हुए अहबाब को करता हूँ तलाश आलम-ए-आब-ओ-गिल अब उन का पता क्या देगा हाँ अगर हद से बढ़ा जज़्बा-ए-दिल ऐ हमदम शौक़-ए-नज़्ज़ारा उन्हीं तक मुझे पहूँचा देगा