ख़ामोश हैं साहिबान-ए-मुंसिफ़ हैरान हैं रहबरान-ए-मुख़्लिस लाशों का कोई वतन नहीं है मुर्दों की कोई ज़बाँ नहीं है उजड़े हुए घर की ख़ामुशी में नौहे की निदाएँ एक सी हैं मातम का है लहजा एक जैसा रोने की सदाएँ एक सी हैं आँखों की सियाहियाँ हैं मद्धम पलकों की क़लम है पारा-पारा ख़ूनाब हुआ है मुसहफ़-ए-रुख़ होंटों के हैं दाएरे शिकस्ता चेहरे की किताब के वरक़ पर! ज़ख़्मों ने जो हाशिए लिखे हैं इन सब की ज़बाँ है एक जैसी वो सब की समझ में आ गए हैं इक पल के लिए शब-ए-अलम में चमकेंगे तसल्लियों के आँसू कुछ देर दरीदा-दामनों में! महकेगी सताइशों की ख़ुशबू फिर ख़ाक की जिल्द में छुपेगा तामील-ए-वफ़ा का अहद-नामा! मिल जाएँगी वारिसों को यादें हो जाएगा क़ाफ़िला रवाना