अपनी तन्हाई मुझे अच्छी लगी मैं ने चाहा है उसे और पाया भी उसे अपने रोज़-ओ-शब में अक्सर है बसाया भी उसे उसी ने दी हैं मुझ को ऐसी ख़ल्वतें जिन में रह कर मैं कभी तन्हा नहीं साथ मेरे अनगिनत ऐसे एहसासात हैं जिन से हासिल है मिरी तन्हाइयों को इक सुकूँ इक रिफ़ाक़त ग़म-गुसारी रहनुमाई रहबरी पा के मैं एहसास के इस क़ुर्ब को रह के तन्हा भी नहीं तन्हा रही मेरी तन्हाई मिरी हमदम मिरी दम-साज़ है उस के ख़ाल-ओ-ख़त से मैं अच्छी तरह वाक़िफ़ नहीं नाम भी मख़्सूस उस को कोई दे सकती नहीं फिर भी उस से मैं बहुत मानूस हूँ सैंकड़ों सीनों की धड़कन सैंकड़ों आवाज़ को सुन रही हूँ इस तरह जैसे इक नग़्मा कोई या हो बहते पानी का इक शोर सा जिस के शोर-ओ-ग़ुल में अब खो गई जाने कहाँ मुझ को तन्हाई मिरी अच्छी लगी प्यारी लगी