बहुत छोटी सी इक तक़रीब रखी है ये दुनिया है लिहाज़ा हस्ब-ए-ख़्वाहिश कुछ यहाँ हो कर नहीं देता सो ये तक़रीब जाने हो न हो पर तुम ज़रूर आना तुम आना आरज़ू की बात होगी ज़िंदगी पर तब्सिरे होंगे वहाँ रुकना जहाँ फूलों की संगत में रविश पर दिल धरे होंगे क़बा-ए-चाक पहने कुछ कुशादा-ज़र्फ़ इस्तिक़बाल को बाहर खड़े होंगे तुम्हें जो रंग भी भाए पहन आना तुम्हें जो भेस ख़ुश आए दबे पाँव हवा के दोष पर या चाँद की किरनों पे चल कर पा-पियादा हर्फ़ हाथों में उठाए या तही-दामाँ किसी सूरत भी आना बस चले आना बहुत छोटी सी इक तक़रीब रखी है न अब शब-ज़ादगी से कोई शिकवा न ज़माने के तग़ाफ़ुल से शिकायत है ज़रूर आना मिरे ग़म की निहायत है