सब जिसे इंतिहा कहें तू उसे इब्तिदा समझ हो न इसी समझ पे ख़ुश यूँही बढ़ाए जा समझ ज़ौक़-ए-सफ़र घटा न दे लोग कहें जो ना-समझ हासिल-ए-मुद्दआ को भी परतव-ए-मुद्दआ समझ और बुलंदियों पे जा राज़ उरूज का समझ दिल में है दर्द-ए-क़ौम अगर क़ौम की जल्द ले ख़बर क़ौम से हैं जो बे-ख़बर क़ौम की उन को दे ख़बर सोच कि अपनी क़ौम से कौन है आज बे-ख़बर काम का आदमी मिले या न मिले किसे ख़बर क्या नहीं तू ख़ुद आदमी ख़ुद को ही काम का समझ तेरे हुदूद में कहीं आईं नज़र न पस्तियाँ लाएक़-ए-ए'तिना न हों ग़ैरों की चीरा-दस्तियाँ दरख़ोर-ए-इल्तिफ़ात हों क्यों ये ज़लील हस्तियाँ जिस की ख़ुदी पे छीन लीं क़ौम की ख़ुद-परस्तियाँ ऐसे ख़ुदी-नवाज़ को क़ौम का रहनुमा समझ क़ुव्वत-ए-ज़र से जो बशर आई बला को टाल दे उस की करामतों में जिस और भी ज़ुल-जलाल दे उस से अगर है बद-ज़नी दिल में तो अब निकाल दे क़ौम की मुफ़्लिसी को जो मारिज़-ए-शक में डाल दे ऐसे भी माल-दार को मक्रमत-आश्ना समझ तू न रख इतनी हुब-ए-ज़र दिल में मगर ये रख ख़याल वक़्त की चीज़ बन गई आज नुमूद-ए-जाह-ओ-माल तेरे नुमूद पर करे फ़ख़्र हर एक बा-कमाल इज़्ज़त-ए-क़ौम का है जुज़ इज़्ज़त-ए-नफ़्स का सवाल अपने भी इर्तिक़ा को तू क़ौम का इर्तिक़ा समझ