कब से ये बार-ए-गराँ अपने काँधों पे उठाए हुए तन्हा तन्हा गश्त करता हूँ मैं हैराँ हैराँ मैं ने हर-चंद छुड़ाना चाहा और मज़बूत हुई उस की गुलू-गीर गिरफ़्त और संगीन हुआ जिस्म-ए-जवाँ पर पहरा सामने फासला-ए-लामतनाही दिल में सैकड़ों मन चले अरमानों के रंगीन चराग़ जिन की ख़ुशबू से मोअत्तर है दिमाग़ जिन से मुमकिन है कि मिल जाए मुझे गुम-शुदा जन्नत का सुराग़ कब से काँधों पे उठाए हुए हैराँ हैराँ वक़्त का बार-ए-गराँ सोचता हूँ कि अगर इस के पैरों के शिकंजे से निकल पाऊँ मैं बे-कराँ अरसा-ए-हस्ती में बिखर जाऊँ मैं