बरसों बैठ के सोचें फिर भी हाथ के आगे पड़ा निवाला आप हल्क़ के पार न जाए ये अदना नाख़ुन तक शायद बढ़ते बढ़ते जाल बिछाएँ ज्ञान नगर बेहद दिलकश है लेकिन उस के रस्ते में जो ख़ार पड़े हैं कौन हटाए सदियों की सोचों का मुरक़्क़ा' टूटे हुए उस बुत को देखो हरे-भरे ख़ुद-रौ सब्ज़े ने घेर रखा है फ़र्क़ कुशादा से चिड़ियों की याद-दहानी चाह-ए-ज़क़न पे काई जमी है हो सकता है शायद उस को ज्ञान मिला हो हो सकता है