ऐ दोस्त पुराने पहचाने हम कितनी मुद्दत बाद मिले और कितनी सदियों बाद मिली ये एक निगाह-ए-महर-ओ-सख़ा जो अपनी सख़ा से ख़ुद पुर-नम बैठो तो ज़रा बतलाओ तो क्या ये सच है मेरे तआक़ुब में फिरता है हुजूम-ए-संग-ज़नाँ? क्या नील बहुत हैं चेहरे पर? क्या कासा-ए-सर है ख़ून से तर? पैवंद-ए-क़बा दुश्नाम बहुत पैवस्त-ए-जिगर इल्ज़ाम बहुत ये नज़र-ए-करम क्यूँ है पुर-नम? जब निकले कू-ए-मलामत में इक ग़ौग़ा तो हम ने भी सुना तिफ़्लाँ की तो कुछ तक़्सीर न थी हम आप ही थे यूँ ख़ुद-रफ़्ता मदहोशी ने मोहलत ही न दी हम मुड़ के नज़ारा कर लेते बचने की तो सूरत ख़ैर न थी दरमाँ का ही चारा कर लेते पल भर भी हमारे कार-ए-जुनूँ ग़फ़लत जो गवारा कर लेते