तू ने पूछा है मिरे दोस्त तो मैं सोचती हूँ वो जो इक चीज़ है दुनिया जिसे ग़म कहती है मुझे तस्लीम, मिरा उस से इलाक़ा न रहा ज़िंदगी गोया कोई सेज रही फूलों की फिर वो क्या है कि जो काँटों सी चुभा करती है मैं ने देखी हैं वो बे-मेहर निगाहें ऐ दोस्त जिन की बेगानगी दिल चीर दिया करती है मैं ने घूमे हैं वो तन्हाई के आसेब-नगर जिन की सरहद पे कहीं मौत फिरा करती है मैं ने काटी हैं वो सुब्हें कि जबीं पर जिन की तीरगी बर्फ़ के मानिंद गिरा करती है अपने आँगन में मिली वहशत-ए-सहरा मुझ को ग़ैरियत जिस में बगूलों सी उड़ा करती है कौन समझेगा कि नेमत से भरी जन्नत में अज्नबिय्यत के अज़ाबों की मलामत क्या है मेहर-ओ-अल्ताफ़-ओ-इनायत के फ़ुसूँ-ख़ाने में पास रहते हुए दूरी की अज़िय्यत क्या है ज़िंदगी की तो अलामत है ये एहसास मगर जाँ निकाले जो, ये एहसास की शिद्दत क्या है दर्द हर एक उमूमी नहीं होता वर्ना कोई कह दे तो हमें कहने की हाजत क्या है ज़िंदगी हो भी और एहसास की सूली पे रहे दस्त-ए-क़ुदरत की ख़ुदा जानिए ग़ायत क्या है जाने क्यूँ है कि सहर-कारी-ए-तख़्ईल का दम रोज़-ओ-फ़र्दा में बदलते हुए घट जाता है अपनी ताबीर में ढलते हुए अफ़्सूँ का सिरा जाने किस तौर कफ़-ए-ख़्वाब से छुट जाता है जब भी ला-हासिली इम्कान की मंज़िल देखे रह में अस्बाब-ए-तमन्ना कहीं लुट जाता है मिल के भी कुछ नहीं मिलता है जहाँ दोस्त मिरे! ए'तिबार-ए-ग़म-ए-हस्ती वहाँ उठ जाता है तू ने पूछा है मिरे दोस्त तो मैं सोचती हूँ अपना क्या हाल बताऊँ जो समझ आ जाए!