नहीं अब मुझे सदा न दो कि शाम ढलने लगी है अभी कुछ देर में सभी रास्ते गुम हो जाएँगे मुझ में वही शख़्स बोलेगा शाम से मैं बुझा-बुझा सा रहता हूँ तुम्हें क्या कहूँ तुम किसी हसीन ख़्वाब के परों पर सवार बे-नाम सम्तों में ख़ुद को पाने के लिए चले जाओगे मैं अकेला ही सही और सुनो किसी बे-नाम सम्त में कोई मिले तो इतना ही कहो कि मैं सदियों से आब-ए-हयात के एक जुरए की बुर्रिश हुल्क़ूम में उतारे तुम्हारा मुंतज़िर हूँ और ये भी सुनो कहीं रास्ते में रात मिल जाए तो उस से कहो कि मैं अंधेरा नहीं हूँ मैं बरस-हा-बरस से चाँदनी को पाने के लिए धूप की बाग को थामे हुए काँच के टुकड़ों का सुफ़ूफ़ चबाने लगा हूँ जब मेरे सारे हवास फ़ज़ाओं में तहलील हो जाएँ तो तुम मेरे जिस्म में बस एक ही बार सूर फूँको और फिर तुम मुझ से कहो कि अब भी तुम ख़ुदा नहीं हो