बेबसी का अज़ाब उदास रस्तों पे चलने वालो उदासियों का सफ़र मुक़द्दर है तुम ये रस्ते बदल भी लो तो निशान-ए-मंज़िल तुम्हारी आँखों की तीरगी में लिपट के बे-नाम हो रहेगा ये शहर ये बस्तियाँ ये क़र्ये बस एक बे-नाम ख़ौफ़ की ज़द में आ गए हैं तुम्हारी आँखों में किन ख़िज़ाओं की ज़र्द वीरानियाँ बसी हैं तुम्हारे होंटों पे ज़हर-ए-बे-रंग की तहें किस लिए जमी हैं तुम्हारे चेहरों का ख़ाक सा रंग कौन से दर्द का असर है उदास रस्तों पे चलने वालो अगर उम्मीदों के पेड़ पतझड़ की ज़द में हैं तो उन्हें जड़ों से उखाड़ फेंको तुम्हारी आँखों में ज़र्द वीरानियाँ बसी हैं तो अपनी आँखों निकाल डालो तुम्हारे शहरों में ख़ौफ़ आसेब बन गया है तो सब मकानों को राख कर दो मगर कभी यूँ न हो सकेगा कि जो बनाने की आरज़ू में बिगाड़ते हैं वो हाथ ही बेबसी के पिंजरे में बंद हैं उन उदास रस्तों पे चलने वालो मुझे भी हमराह ले के चलना कि मैं अकेला कहाँ रहूँगा