रहा न कुछ भी ज़माने में जब नज़र को पसंद तिरी नज़र से किया रिश्ता-ए-नज़र पैवंद तिरे जमाल से हर सुब्ह पर वज़ू लाज़िम हर एक शब तिरे दर पर सुजूद की पाबंद नहीं रहा हरम-ए-दिल में इक सनम बातिल तिरे ख़याल के लात-ओ-मनात की सौगंद मिसाल-ए-ज़ीना-ए-मंज़िल ब-कार-ए-शौक़ आया हर इक मक़ाम कि टूटी जहाँ जहाँ पे कमंद ख़िज़ाँ तमाम हुई किस हिसाब में लिखिए बहार-ए-गुल में जो पहुँचे हैं शाख़-ए-गुल को गज़ंद दरीदा-दिल है कोई शहर में हमारी तरह कोई दुरीदा-दहन शैख़-ए-शहर के मानिंद शिआर की जो मुदारात-ए-क़ामत-ए-जानाँ किया है 'फ़ैज़' दर-ए-दिल दर-ए-फ़लक से बुलंद