टूटती हुई क़द्रों का अलमिया By Nazm << वा'दे की शब एक शाम >> मैं इक बूढ़ा बरगद जिस की जटाएँ बढ़ती हैं बढ़ती ही रहती हैं इस से पहले कि ज़मीं छू लें जिस्म का सुतून बन जाएँ गाँव के मासूम बच्चे आते हैं झूला झूलते हैं तोड़ देते हैं Share on: